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कविता

दीप जले

शरद आलोक


अंधकार से
हृदय हार से
बिखरते सुमन
हरसिंगार के
हर मन ज्योति जले,
दुख दर्द हमार छले
दीप जले,
मन की प्रीत तले

कब अनार से
जलते-जलते
कितने बम फटें
सुख तो बाँट चुके हैं भैया
दुख-बादल न छटें
मंदिर-द्वारे गुरुद्वारे
शिकवें भुला चलें
मिलकर आज गले
दीप जले,
मन की प्रीत तले

सड़क किनारे बाल श्रमिक को
घर में महरिन-मालिन स्वच्छकार को
गली कूचे में कूड़े से निकालकर
कागज, खनिज, प्लास्टिक-शीशा
जो देश की खान भरें
उनको गले लगाकर पूछो
@yaa उनके पेट भरे ?

जो सेवा से घाव भरे
हम उनके सुख-दर्द सुनें
अहसास अपनेपन का
थाली में साथ खिलाएँ
जले हुए पाँवों में
मरहम आज मलें
दीप जले
मन की प्रीत तले.

चाय-दुकानों में
जो चाय पिलाते हैं

उनको चाय मिली?
खेतों-खलियानों में
जो अनाज उगाते हैं
घर उनके चूल्हे जले?
अपना जब पेट भरा
दूजों के पेट भरें
भागे बहुत अकेले
अब आओ साथ चलें
दीप जले
मन की प्रीत तले


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